Tuesday, March 6, 2018

याद हैं तुम्हें

जब हम नए इश्क़ की डोर थामे
छोटे शहर के बड़े मकानों की छतों पर उडा करते थे
मैं तुम्हारी सुफ़ेद कमीज़ पर नीली स्याही के बादल बनाती थी
और तुम
मेरी मासूम हंसी को अपनी नज़मों में उतारा करते थे
आज भी हम उड़ने की कोशिश करते हैं
बड़े शहर के टू बीएचके फ्लैट की
चार गज की बालकनी से
इश्क़ वही है आज भी
बस दुनियादारी,रीत-रीवाज
और सोसाइटी के स्टेटस की धूल की जम गयी है अब
तुम्हारी सुफ़ेद कमीज़ के वो नीले बादल
लोकल के सफ़र में काले मटमैले हो गये हैं
और मेरी हंसी भी तुम्हारी नज़मों की तरह ख़ामोश हो गयी है
-- निधि --

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